आस्था निगम
विभिन्न रोगों का उपचार करने के लिए लोगों ने प्राचीन काल से ही अनेक प्रकार के पौधों का उपयोग किया है. औषधीय पौधे अधिकतर जंगली हैं परन्तु कभी-कभी वे भी उगाए जाते हैं पौधे की जड़ें, तना, पत्तियां, फूल, फल, बीज और यहां तक कि छाल को उपचार के लिए प्रयोग किया जाता है.
ये औषधीय गुण पौधों में मौजूद कुछ रासायनिक पदार्थों से मिलते हैं, जो मानव शरीर की कुछ विशिष्ट क्रियाओं पर प्रभाव डालते हैं. राज्य में औषधीय फसलों में अश्वगंधा, सर्पगंधा, सतवार, आंवला,नीम, वन तुलसी, तिखुर, काली हल्दी शामिल है.
देश भर में हर्बल उत्पादों की बढ़ती मांग के कारण किसानों ने परंपरागत खेती के अलावा औषधीय और जड़ी-बूटियों की खेती भी शुरू कर दी है. हर्बल उत्पादों का समय आने वाला है, इसमें कोई शक नहीं.
फसल विविधता क्यों है आवश्यक ?
खेत में एक ही तरह की फसल कई सालों तक उगाने से पैदावार क्षमता प्रभावित होती है. एक खेत में एक ही तरह की फसल लगाने से मिट्टी की उर्वरता प्रभावित होती है. यही कारण है कि किसानों को फसल विविधता की सलाह दी जाती है. किसान गेहूं और धान के खेतों को खाली करने के बाद औषधीय पौधों की खेती करेंगे तो यह फसल विविधता के इस क्रम में उनके लिए बहुत फायदेमंद होगा. वह अगली बार धान और गेहूं उगाने पर अधिक पैदावार देगा.
आइये जानते है छत्तीसगढ़ की जलवायु की दृष्टि से कुछ उपयोगी औषधीय पौधों के बारे में
अश्वगंधा
यह झाड़ीदार पौधा है. इसे अश्वगंधा कहते हैं क्योंकि इसकी जड़ से अश्व की गंध आती है. यह अन्य सभी जड़ी-बूटियों से अधिक लोकप्रिय है. इसका उपयोग चिंता और तनाव कम करने में किया जाता है. इसकी जड़, पत्ती, फल और बीज को औषधि बनाई जाती है. किसानों के लिए अश्वगंधा बहुत फायदेमंद है. इसे कैश कॉर्प भी कहा जाता है क्योंकि किसान खेती से कई गुना अधिक कमाई कर सकते हैं. अश्वगंधा बलवर्धक, स्फूर्तिदायक, स्मरणशक्ति बढ़ाता है, तनाव कम करता है और कैंसर को मारता है. अश्वगंधा एक औषधीय फसल है जो कम लागत में अधिक उत्पादन देती है. किसान अश्वगंधा की खेती से तीन गुना लाभ प्राप्त कर सकते हैं. यह भी प्राकृतिक आपदाओं से कम प्रभावित है. जुलाई से सितंबर का महीना अश्वगंधा की बोआई के लिए सबसे अच्छा है. वर्तमान में पारंपरिक खेती में हो रहे नुकसान को देखते हुए, अश्वगंधा की खेती किसानों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है.
सतावर
सतावर एक आयुर्वेदिक फसल है. कई प्रकार की दवा इससे बनाई जाती है. हाल ही में इस पौधे की मांग बढ़ी है और इसकी कीमत भी बढ़ी है. इसकी खेती से किसान बहुत अच्छी कमाई कर सकते हैं. सतावर की खेती जुलाई से सितंबर तक की जाती है. सतावर की खेती से एक एकड़ में पांच से छह लाख रुपये की कमाई की जा सकती है. इसके पौधे को तैयार होने में लगभग एक वर्ष से अधिक का समय लगता है. किसानों को तैयार फसल से बहुत अधिक रिटर्न मिलता है. सतावर की खेती इसलिए भी फायदेमंद है कि इसमें कीट पतंग नहीं लगते हैं. वहीं, जानवर इसे कांटेदार पौधे होने की वजह से नहीं खाते हैं.
कालमेघ
कालमेघ की गुणवत्ता को देखते हुए इसकी खेती की जानी चाहिए. इसके तने, पत्ती, पुष्पक्रम और अन्य भागों को चिकित्सा में उपयोग किया जाता है. यह कफ पित्तशामक, लीवर रोगों में उपयोगी, अग्निमंदता को दूर करके यकृत वृद्धि को कम करने वाला, कब्ज और कृमि रोगों में उपयोगी औषधि है. तेज बुखार में भी फायदेमंद है. मलेरिया जन्य यकृत, प्लीहा वृद्धि, अल्कोहलिक और न्यूट्रीशनल सिरोसिस में इसका उपयोग किया जाता है क्योंकि यह रक्त शोधक है. ज्वर के बाद की कमजोरी को कम करता है. डायबिटीज के लिए भी फायदेमंद है. इसको गर्म नम और पर्याप्त सूर्य प्रकाश की जरूरत है. मानसून आने के बाद यह काफी बढ़ता है और सितंबर के मध्य में, जब तापक्रम कम गर्म और कम ठंडा होता है, तब फूल आने लगते हैं. जून के दूसरे पखवारे से जुलाई तक (एक महीने की) पौध को क्यारियों में लगाते हैं. छत्तीसगढ़ के गरियाबंद क्षेत्र के जंगलों में देश में सर्वश्रेष्ठ में से एक कालमेघ पाया जाता है.
आंवला
आँवले के पौधों का प्रत्येक हिस्सा लाभदायक है. इसके फलों में विटामिन “सी” की भरमार है. इसके फल में फास्फोरस, कैल्शियम, लोहा, कार्बोहाइड्रेट, कैल्शियम और अन्य विटामिन भी हैं. इसका फल तीक्ष्ण और शीतल है.इसकी पत्तियों को पानी में उबालकर कुल्ला करने से मुँह के छाले दूर होते हैं. इसकी पत्तियों में अधिक टैनिन और फिनोल होने से ऐसा होता है. यही नहीं, आँवले के फल खाने से पेट साफ होता है, और इसकी जड़ पीलिया को दूर करती है. जुलाई से अगस्त तक पौधों को कलिकायन या कलम बंधन से रोपाई करते हैं.पौधों को वर्गाकार तरीके से रोपा जाता है, जिसमें पंक्ति से पंक्ति और पौधों से पौधों की दूरी बराबर होती है.प्रत्येक वर्ग में एक और पौधा लगाया जा सकता है. इस प्रक्रिया को पूरक प्रक्रिया या क्विनकन्स भी कहते हैं. इससे बागवान अधिक लाभ ले सकते हैं और खाली जगह का सही उपयोग कर सकते हैं. यह विधि अन्य फलों (जैसे बेर, अमरुद, नींबू, करौंदा, सहजन) को एक साथ लगाने के लिए बहुत अच्छी है.
सर्पगंधा
आयुर्वेदिक तथा यूनानी चिकित्सा पद्धति में जड़ों का प्रयोग विभिन्न प्रकार की बीमारियों, जैसे मस्तिष्क सम्बन्धी रोगों, मिरगी कंपन इत्यादि, आंत की गड़बड़ी तथा प्रसव आदि विभिन्न बीमारियों के उपचार में बहुतायत से उपयोग होता है. आधुनिक चिकित्सा पद्धति में सर्पगंधा की जड़ों का प्रयोग उच्चरक्त चाप तथा अनिद्रा की औषधियाँ बनाने में प्रयोग होता है. बस्तर अंचल की सर्पगंधा में अधिक उपयोगी अल्कलॉइड पाया जाता है। बरसात का समय इसकी रोपाई के लिये उपयुक्त होता है.
तिखुर
तिखुर का कंद स्वादिष्ट, पौष्टिक और रक्तशोधक है. तिखुर बच्चों और अधिक उम्र के लोगों में कमजोरी को दूर करने में बहुत महत्वपूर्ण है. इसका लाभदायक भाग तिखुर का कंद है. तिखुर पाउडर में विटामिन ए, विटामिन सी, कैल्शियम, आयरन, सोडियम और स्टार्च हैं. यह फलाहारी भोजन के रूप में उपयोग किया जाता है . तीखुर कंद के अर्क को ज्वार, अपच, जलन, पीलिया, पथरी, अल्सर, कोढ़ और रक्तशोधन में प्रयोग किया जाता है. तीखुर के कंदों से भी औषधीय सुगंधित तेल निकलता है. जून माह के अंतिम सप्ताह या जुलाई माह के प्रारंभ में अंकुरित कंदो को जीवित क्लिकायुक्त टुकड़ों में काटकर रोपित कर देना चाहिए.